हर दिन घटती है मथुरा के इस पर्वत की ऊंचाई, पुलत्स्य ऋषि ने दिया था छल करने पर श्राप
हिंदू मान्यताओं के अनुसार मथुरा, गोकुल और वृंदावन को खासा महत्व दिया जाता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि द्वापर युग में यहीं पर भगवान श्री कृष्ण ने जन्म लिया और अपने युवाकाल तक का समय बिताया। यह इलाका उनके प्रेम, वात्सल्य, करुणा, चंचलता और हठ के लिए भी जाना जाता है। हर साल कार्तिक माह की शुक्ल प्रतिपदा के दिन यहां हर्षोल्लास के साथ पर्व मनाया जाता है। इस दौरान यहां दीपदान समेत कई तरह के समारोह के आयोजन की भी परंपरा है।
श्रीकृष्ण ने अंगुली पर उठाया पर्वत भगवान श्रीकृष्ण का बाल्यकाल बेहद मनोहारी रहा है। बचपन में श्रीकृष्ण ने देवराज इंद्र का घमंड तोड़ने के लिए गोर्वधन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाकर मथुरा वासियों को संरक्षण दिया था। इसके बाद से श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत की पूजा की परंपरा और उत्सव की शुरुआत की। यह दिन कार्तिक अमावस्या का अगला दिन था और इस दिन दीवाली पर्व मनाया जा रहा था। अगले दिन गोवर्धन पूजा की शुरुआत हुई। ऐसी मान्यता है कि गोवर्धन पूजा से दुखों का नाश होता है और दुश्मन अपने छल कपट में कामयाब नहीं हो पाते हैं। यह गोवर्धन पर्वत आज भी मथुरा के वृंदावन इलाके में स्थित है।
गोवर्धन पर्वत और पुलस्त्य ऋषि मथुरा में श्रीकृष्ण की लीला से पहले ही गोवर्धन पर्वत को पुलस्त्य ऋषि लेकर आए थे। हिंदू मान्यताओं के अनुसार इस संबंध में एक कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार पुलस्त्य ऋषि तीर्थ यात्रा करते हुए गोवर्धन पर्वत के समीप पहुंचे तो उसकी सुंदरता और वैभव को देखकर प्रसन्न हो गए। इस पर उन्होंने गोवर्धन को साथ ले जाने के इरादे से गोवर्धन पर्वत के पिता द्रोणांचल पर्वत से निवेदन किया कि मैं काशी में रहता हूं और मैं आपके बेटे गोवर्धन को अपने साथ ले जाना चाहता हूं और वहां मैं इसकी पूजा करूंगा।
काशी ले जाने पर अड़े पुलस्त्य ऋषि पुलस्त्य ऋषि के निवेदन पर द्रोणांचल पर्वत बेटे के लिए दुखी हुए लेकिन गोवर्धन पर्वत के मान जाने पर उन्होंने अनुमति दे दी। काशी जाने से पहले गोवर्धन पर्वत ने पुलस्त्य ऋषि से आग्रह किया कि वह बहुत विशाल और भारी है। ऐसे में वह उसे काशी कैसे ले जाएंगे। इस पर पुलस्त्य ऋषि ने अपने तेज और बल के जरिए हथेली पर रखकर ले जाने की बात कही। गोवर्धन ने फिर आग्रह किया कि वह एक बार हथेली में आने के बाद जहां भी उसे रखा जाएगा वह वहीं स्थापित हो जाएगा।
गोवर्धन पर्वत ने इच्छा मानी पर शर्त रखी गोवर्धन का यह आग्रह मानकर पुलस्त्य ऋषि उसे हथेली पर रखकर काशी की ओर चल पड़े। पुलस्त्य ऋषि जब मथुरा के इलाके में पहुंचे तो गोवर्धन ने सोचा कि भगवान श्री कृष्ण इसी धरती पर जन्म लेने वाले हैं और यहीं पर गाय चराने वाले हैं। ऐसे में वह उनके समीप रहकर मोक्ष हासिल कर लेगा। यह सोचकर गोवर्धन पर्वत ने अपना वजन भारी कर लिया। वजन के बढ़ते ही पुलस्त्य ऋषि को आराम करने की जरूरत महसूस हुई और उन्होंने गोवर्धन पर्वत को वहीं जमीन पर रखकर सो गए।
पुलस्त्य ऋषि ने शापित किया पुलस्त्य ऋषि जब जगे तो उन्होंने गोवर्धन पर्वत को चलने के लिए कहा। इस पर गोवर्धन पर्वत ने अपनी शर्त पुलस्त्य ऋषि को याद दिलाई कि उसे काशी से पहले जहां भी रखा जाएगा वह वहीं स्थापित हो जाएगा। इस पर पुलत्स्य ऋषि नाराज हो गए और उन्होंने गोवर्धन पर्वत पर छल करने का आरोप लगाया। गुस्से में पुलस्त्य ऋषि ने गोवर्धन पर्वत को हर दिन मुट्ठी भर घटने का श्राप दे दिया। पुलस्त्य ऋषि ने कहा कि तुम्हारी ऊंचाई घटते घटते कलयुग में तुम पूरे के पूरे पृथ्वी में समा जाओगे। कहा जाता है कि पुलत्स्य ऋषि के श्राप के चलते गोवर्धन पर्वत की ऊंचाई 30 हजार मीटर थी जो अब करीब 30 मीटर ही बची है। ..
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा अर्थात दीपावली के अगले दिन यह गोवर्धन उत्सव मनाया जाता है। आज गायों की सेवा का विशेष महत्व है।
हिन्दु धर्म की मान्यताओं के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण जी ने गोवर्धन पूजा की थी और इंद्र देवता के अंहकार को तोड़ा था। इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्र की पूजा के बजाय गोवर्धन की पूजा शुरु करवाई थी। *ऐसी मान्यता है कि इस दिन गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाकर उनकी पूजा की जाती है, यह प्रथा एवं परम्परा भगवान श्रीकृष्ण के द्वापर युग से नियमित रुप से चली आ रही है
गोवर्द्धन गिरिधारी भगवान श्रीकृष्ण के जीवन का मुख्य उद्धेश्य, स्वरूप और उसके सदुपयोग के साथ साथ मानव से भिन्न अन्य जीवों तथा प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन किस प्रकार किया जाय, भगवान श्रीकृष्ण द्वारा इन त्यौहारों के माध्यम से आम मानव को सरलता व सहजता से समझाने का प्रयास किया गया है।
*कछु माखन को बल बढ्यौ कछु गोपन करी सहाय*
*श्रीराधे की कृपा सों गिरिवर लियौ उठाय*
*ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने*
*प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः*
भगवान श्रीराधामाधव, गाय माता माँ भगवती सरस्वती व भगवान इन्द्रदेव की असीम कृपा हमारे देश के सभी कृषकों, पशुपालकों, कारीगरों, श्रम जीवियों के साथ साथ आप सभी पर भी बनी रहे।
ऐसे पवित्र त्यौहारों के पुनीत अवसर पर हम सभी का नैतिक कर्तव्य है कि हम सभी मिलकर किसी न किसी रूप से गौवंश का सही ढ़ंग से पालन पोषण कर उनका संरक्षण व संवर्धन करने में पूर्ण मनोयोग से इस दिशा में सकारात्मक सहभागिता निभाने का प्रयास कर जीवों व प्रकृति का भी सहयोग करें।
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